बचपन के बारे मे जब भी सोचता हूँ तो धुंधली धुंधली सी कई परछाईयाँ सामने आ खडी होती हैं। मेरे घर की वो काली चितकबरी गाय, मेरे मनोरंजन के लिए पाले गए धवल खरगोश के जोडे, और खपरैल पर टिन के छोटे डब्बे मे पाले हुए कबूतर- सबका मेरे बचपन मे कितना महत्वपूर्ण स्थान रहा है, ये मैं कभी व्यक्त ना कर पाऊँगा। आज मेरे पास कोई भी पालतू जीव नहीं है, पर निरीह जानवरों पर मेरा प्रेम कभी कम ना हुआ।
मेरे खानदान मे पालतू जानवरों का इतिहास काफी गरिमामय हो, ऐसा नही है। एक किसान के परिवार मे गाय-भैंस तो होते ही हैं। यद्यपि मेरे दादाजी ने गाँव से अलग एक कस्बे मे अपना घर बनाया था (आजकल आप उस कस्बे को शहर भी कह सकते हैं) परंतु किसान तो ठहरा किसान ही ना। तो मेरे घर मे एक बछडे और गाय की गोशाला थी। मेरी पुरानी स्मृतियों मे से एक स्मृति यह भी है, जब मैंने बछडे को गाय के उदर से निकलते देखा। इस पर भी कोई विश्वास नही करता, क्यूंकि तब मैं बहुत छोटा था। गाय का पौष्टिक दूध पीने को मिले तो गाय तो रास आएगी ही। मैं घंटो उस गाय के पास बैठा रहता और जब माँ जबरदस्ती गंदे होने के भय से मुझे वहाँ से हटा देती तो अपनी काल्पनिक भाषा मे उससे बातें करता। शायद मेरे पशु प्रेम को देखकर ही, दादाजी ने एक दिन अनायास ही दो खरगोश ला कर सामने खडे कर दिए।
ये खरगोश गायों से अधिक सुंदर थे। मैं इन्हें पकड़ सकता था। इनका रंग भी लुभावना था। आँखें भी प्यारी थी। सींघों का डर भी नही था और माँ कभी भी इनके पास से मुझे नहीं हटाती थी। घर के एक हिस्से मे घास ही घास थे, तो दिन भर मैं उन खरगोशों के साथ खरगोश बना रहता। हर आते जाते के लिए मेरा खरगोश प्रेम एक उदाहरण जैसा था। शायद ये खरगोशों की संगति का ही असर था कि मैं बचपन मे नेक और आज्ञाकारी था। आज भी मेरी माँ गर्व से कहती है कि उसके बेटे ने ना तो बचपन मे उटपटांग जिद्द की और ना ही रो रो कर आसमान सर पर उठाया।
और हमेशा खुश रहने वाला बालक अचानक से एक दिन रोते रोते आसमान उठा दे तो? हुआ यह कि एक दिन सुबह सुबह मैं हमेशा की तरह अपने खरगोशों की तलाश मे मग्न था। और घंटे भर के भी बाद जब वे ना मिले तो मेरे आंखों मे बरबस ही आंसू आ गए। हर जगह मैंने अपना 'खल्गोछ' ढूँढ लिया पर वो नही मिले। लोग समझाने लगे कि वो दुसरा खरगोश ले आएंगे लेकिन 'नही! मुझे तो अपना वाला खरगोश ही चाहिऐ'। हर कोई परेशान! मुझे चुप कराने के लिए तरह तरह के प्रलोभन दिए जाने लगे। पर निष्कपट बालक रिश्वत ले कर अपने दोस्त को कैसे भूले? किसी ने डरते डरते बताया कि वो खरगोश मर गया। पर बालपन में मृत्यु जैसी अतार्किक शब्द का ज्ञान भी कहाँ होता है?
'मर गया...! मतलब?' निरीह बालक ने आंसू पोछ्ते हुए प्रश्नवाचक दृष्टि दी। (बोलना तो जानता नही था, शब्द ज्ञान सीमित जो था)
'मतलब भगवान् जी के पास चला गया।' प्रत्युत्तर मे एक दार्शनिक जवाब मिला।
'भगवान् जी तो सबको खुश रखते हैं ना? और वो तो हमेशा सही काम करते हैं ना? फिर मेरा खरगोश क्यों चुराया? सब कहते कि मैं अच्छा बच्चा हूँ। फिर भी...ऊँऊऊँ' (रोना फिर प्रारम्भ! तुम लोग अनजाने शब्दों का प्रयोग कर के मुझे बहलाना चाहते हो।)
'अरे एक दिन सबको भगवान् जी अपने पास बुला लेते हैं।' जवाब मिला।
'अपने पास बुला लेते हैं? कहाँ? कहाँ घर है उनका? अभी जाओ...और जाके मेरा खरगोश ले के आओ।' - बालक ने क्षण भर को रोना रोक कर कहा। मन मे आशा की एक किरण जागी। शायद भगवान् जी के घर पे अभी भी मेरा खरगोश मिल जाये।
'अरे उनके घर कोई नही जा सकता! वो आसमान मे रहते हैं।'
'नही! ये लोग जवाब दे रहे हैं या मजाक कर रहे हैं। मैं कुछ भी पूछता हूँ तो ऐसा जवाब देते हैं जो १०० नए सवाल उठाता है। हद्द है! ऐसा कैसा घर जहाँ कोई जा ही नही सके? जाने का मन ही नहीं है इन लोगों का। और कहाँ रहते हैं ये भी कोई बता देता तो मैं खुद ही चल जाता किसी तरह पूछ पूछ के। लेकिन ये तो झूठ बोलते हैं। आसमान मे कोई कैसे रह सकता है? गिर नही जाएगा क्या? जान बुझ के उल्टे सीधे उत्तर दे रहे हैं। और भगवान् जी भी गंदे हैं। चुराने के लिए मेरा ही खरगोश मिला था। नही नही....! भगवान् जी को गन्दा कहने से पाप लगता है। ये लोग गंदे हैं। झूठमूठ भगवान जी को बदनाम कर रहे हैं। इन्ही लोगों ने किसी को दे दिया होगा। आने दो दादाजी को। सबकी शिक़ायत करूंगा।' बालमन ना जाने क्या क्या सोच गया।
दिन भर रोने के बाद जब रात को दादाजी को सब कुछ सुनाया तो उन्होने बड़ी गम्भीरता से मुझे समझाने कि चेष्टा की कि हर कोई अपना निश्चित समय पुरा करके वापस चला जाता है। मैं उनकी बात समझ गया- इसका तो भरोसा नही होता, पर रोते रोते थक जान के कारण सो जरूर गया। सुबह उठने पर मैं कुछ भी भूल तो नही पाया परंतु इतनी बात समझ मे आ गयी कि अब मेरे खरगोश मुझे कभी नही मिलेंगे।
उस दिन के बाद मैं हमेशा उदास रहने लगा। लोगों को बहुत चिंता हुई। फिर एक दिन मेरे पापा की बुआ कहीँ से दो कबूतर ले आयी। उस दिन बहुत दिनों बाद मैं खुश हुआ। हमारे घर के बरामदे मे खपरैल थी। वहाँ टिन का एक डब्बा रखा गया और उसमे दो नन्हे कबूतर। उन्हें उड़ना नही आता था। मैं रोज उन्हें देखता रहता कि वो शायद आज उड़ना सीख जायेंगे। और एक दिन मैंने उन्हें उड़ते देखा। सबसे पहले उन्हें उड़ते हुए मैंने देखा, इस बात की ख़ुशी असीम थी। बस थोड़ी दूर ही उड़ पाते थे वो। उन्हें उड़ना सीखते हुए दो दिन भी नही हुए थे कि एक सुबह मैंने अपने घर के कटहल के पेड के नीचे उन्हें लेटे देखा। चारो तरफ ख़ून बिखरा था। और एक बिल्ली एक कबूतर को अपने मुँह मे दबाये थी। थोड़ी देर मैं सन्न होकर देखता रहा। घरवाले लोगों ने जब ये देखा तो फौरन मुझे वहाँ से हटा लिया। लेकिन तब तक देर हो चुकी थी। घरवाले डरते रहे कि इस बार मेरा रोना नही रूक सकेगा। पर मैं बिल्कुल नही रोया। मैं भी 'मृत्यु' का अर्थ जान गया था।
सोमवार, जून 25
मंगलवार, जून 19
बचपन की पहली स्मृति
अगर मैं पूछूं कि आपके बचपन की पहली स्मृति क्या है तो क्या कहेंगे? कुछ ना कुछ तो जवाब होगा ही आपके पास। मेरे पास भी इस प्रश्न का जवाब सदा सर्वदा से रहा है। परंतु आजतक मैंने एक भी ऐसा प्राणी नही देखा, जिसे मेरे उत्तर पर संदेह ना हो। मुझे पुरा भरोसा है कि आप भी मेरे जवाब को एक बेहुदे लेखक की कोरी कल्पना समझकर नजरअंदाज कर देंगे। पर फिर भी, मैं सत्य बतलाने के अपने लेखक धर्म का निर्वाह कर के ही रहूँगा। तो सत्य यह है कि मेरे बचपन की पहली स्मृति तब की है जब मैंने बैठना भी नही सीखा था। जी हाँ! मैं उस वक़्त बैठना सीख रहा था।
उस वक़्त लोगों को मुझे बैठना सिखलाने मे बड़ा मजा आता। पर मुझे? सत्य कहता हूँ, बड़ी तकलीफ होती थी। जब भी कोई मुझे बिठाता, थोड़ी देर तक तो सब ठीक होता। परंतु कुछ समय बाद ऐसा प्रतीत होता, मानो सामने की जमीन मे एक ढाल सा आ गया हो और मैं उस ढलान के सहारे लुढ़कने वाला हूँ। घबराकर मैं पीछे की ओर झुकता तो लगता मानो आगे की ढाल अब पीछे की ओर भी बननी शुरू हो गयी है। धीरे धीरे मुझे अपने चारों ओर ढलान ही ढलान दिखायी देने लगती। मैं घबराकर अपनी आँखें बंद कर लेता और लोगों को मेरे गिरने का पता चल जाये इसलिये पूरी शक्ति से रोना प्रारम्भ कर देता।
क्यों? आपको भी विश्वास नही हुआ ना मेरी पहली स्मृति पर? अब मुझे अपनी बात को सच साबित करने का कोई मार्ग तो नही पता परंतु एक बात पर गौर कीजियेगा। अगली बार जब भी किसी ऐसे बालक को, जो बैठना सीख रहा हो, गिरते देखें तो मेरी बात याद कीजियेगा। ध्यान से देखियेगा! गिरते वक़्त उसकी आँखें भी बंद होंगी। वो चीख कर अपनी अनुभूति तो आपको ना बता पायेगा। परंतु उसकी बंद पलकों से मेरी बात की सत्यता जरूर सिद्ध होगी। और हाँ! उस बालक को मेरी अबोध स्मृति का गवाह बनने के लिए मेरी ओर से धन्यवाद देना और उसे बताना कि इस विश्व मे एक मनुष्य ऐसा है जो उसके मन की पीड़ा समझता है।
इस तरह की कई स्मृतियाँ हैं जो बार बार मेरे मनो मस्तिष्क पर दस्तक देती रहती हैं। परंतु, इन बातों पर लोगों का अविश्वास देखते देखते, कभी कभी ऐसा लगता है मानो वो सारी बातें मेरी कल्पना की उपज थी। (आख़िर आज की कल्पनाशक्ति के कुछ बीज उस वक़्त भी रहे होंगे ना?) परंतु कुछ यादों का हक़ीकत से इतना ज्यादा मेल है कि मैं भली-भांति अविश्वास भी नही कर पाता। उदाहरण के तौर पर कुछ और बातों का जिक्र करना चाहूँगा।
एक स्मृति है उस वक़्त की, जब मैंने थोडा थोडा बैठना सीखा था। उन दिनों, हमारे इलाक़े मे बन्दर बहुत हुआ करते थे। हर किसी की छत पर अचार, सूखे आम (और कभी कभी चावल-गेंहू भी) सूखने को रखा होता था। तो बन्दर आते और जो उस वक़्त तक अपनी चीजें नही समेट पाते, उनके छत की चीजें बडे मजे मे खाते। दूर से ही लोग बंदरों को देखकर अपनी अपनी चीजें समेटने लगते। तो एक दिन, मैं अपने घर की छत पर चुपचाप बैठा खेल रहा हूँगा। बच्चों को खेलने के लिए किसी के साथ की आवश्यकता तो होती नही। रोज की तरह बन्दर आये और लोगों ने सामान समेटना शुरू किया। हडबडी मे लोग भूल ही गए कि मैं भी एक सामान ही हूँ जिसे समेटने की आवश्यकता है। अब जिसके पास बुद्धि ना हो उसे डर काहे का? मैं निर्भीक अपनी दुनिया मे खोया रहा। परंतु बुद्धिमान लोगों के पास भय नामधारी जो 'विवेक' होता है उससे वो कैसे बचें? फिर क्या था? माँ का रोना, दादी का चिल्लाना एवं बुआओं का सिसकना प्रारम्भ! कोशिश करें तो यह भी दुनिया के आश्चर्यों मे स्थान पा सकता है कि ना बंदरों को कोई तकलीफ है ना उन से घिरे बालक को! परंतु, बाक़ी लोगों को उसमे बड़ा कष्ट हो रहा है। खैर, अंततः मेरे पिताश्री ने वीरोचित कदम उठाते हुए उन बंदरों को ललकारा। (अब उन्होने मेरे प्रेम से वशीभूत होकर ऐसा किया या नारी-मंडल के क्रन्दन से ऊब कर - ये तो वही बता पाएंगे) पहले डंडों से, पत्थरों से बंदरों को भड़काने की चेष्टा की गयी। पर बन्दर तो बन्दर ही ठहरे ना? उन्हें इस खेल मे मजा आने लगा। ना जाने कितनी देर उनका ये खेल चला। फिर मेरे पिताजी के सब्र का बाँध टूट ही गया और उन्होने बंदरों को मल्ल युद्ध के लिए आमंत्रित किया। अब मेरे दिमाग मे उस अदभूत कुश्ती का चित्र इस तरह छप गया कि आज भी मैं वो दृश्य याद कर सकता हूँ।
थोड़े बडे होने पर यह कहानी मैंने जब अपने परिवार के सदस्यों को सुनायी तो पापा ने हँसते हुए कहा, "तुमने वो कहानी किसी से सुनी होगी। उतनी छोटी उम्र का किसी को कुछ याद नही रहता"।
"लेकिन ऐसा भी तो हो सकता है कि मुझे याद हो।" मैंने प्रतिवाद किया।
"हाँ! तुम ही सबसे बडे विद्वान होने वाले हो। दुनिया मे आजतक तुम्हारे जैसी यादाश्त किसी की नही हुई। वाह!" पिताजी के स्वर मे छुपा व्यंग्य मुझे उस वक़्त भी समझ मे आया था। और उस वक्त भी व्यंग्य मुझे चुभता था। (यद्यपि पिताजी इस बात को भी नजरअंदाज करते हुए एक व्यंग्य प्रस्तुत कर देंगे)।
बाद मे मैंने अपनी माँ को वो जगह दिखायी जहाँ यह सब हुआ था। अब माँ को कितना विश्वास हुआ, ये तो पता नही! परंतु, माँ ने मेरी बात पर कोई व्यंग्य नही किया। क्या माँ की भी ऐसी कोई स्मृति थी, जिसपर हर कोई संदेह करता था? मैंने पूछने की बहुत कोशिश की परंतु एक ही जवाब मिला, 'जाओ, खेलो! पागल!'
उस वक़्त लोगों को मुझे बैठना सिखलाने मे बड़ा मजा आता। पर मुझे? सत्य कहता हूँ, बड़ी तकलीफ होती थी। जब भी कोई मुझे बिठाता, थोड़ी देर तक तो सब ठीक होता। परंतु कुछ समय बाद ऐसा प्रतीत होता, मानो सामने की जमीन मे एक ढाल सा आ गया हो और मैं उस ढलान के सहारे लुढ़कने वाला हूँ। घबराकर मैं पीछे की ओर झुकता तो लगता मानो आगे की ढाल अब पीछे की ओर भी बननी शुरू हो गयी है। धीरे धीरे मुझे अपने चारों ओर ढलान ही ढलान दिखायी देने लगती। मैं घबराकर अपनी आँखें बंद कर लेता और लोगों को मेरे गिरने का पता चल जाये इसलिये पूरी शक्ति से रोना प्रारम्भ कर देता।
क्यों? आपको भी विश्वास नही हुआ ना मेरी पहली स्मृति पर? अब मुझे अपनी बात को सच साबित करने का कोई मार्ग तो नही पता परंतु एक बात पर गौर कीजियेगा। अगली बार जब भी किसी ऐसे बालक को, जो बैठना सीख रहा हो, गिरते देखें तो मेरी बात याद कीजियेगा। ध्यान से देखियेगा! गिरते वक़्त उसकी आँखें भी बंद होंगी। वो चीख कर अपनी अनुभूति तो आपको ना बता पायेगा। परंतु उसकी बंद पलकों से मेरी बात की सत्यता जरूर सिद्ध होगी। और हाँ! उस बालक को मेरी अबोध स्मृति का गवाह बनने के लिए मेरी ओर से धन्यवाद देना और उसे बताना कि इस विश्व मे एक मनुष्य ऐसा है जो उसके मन की पीड़ा समझता है।
इस तरह की कई स्मृतियाँ हैं जो बार बार मेरे मनो मस्तिष्क पर दस्तक देती रहती हैं। परंतु, इन बातों पर लोगों का अविश्वास देखते देखते, कभी कभी ऐसा लगता है मानो वो सारी बातें मेरी कल्पना की उपज थी। (आख़िर आज की कल्पनाशक्ति के कुछ बीज उस वक़्त भी रहे होंगे ना?) परंतु कुछ यादों का हक़ीकत से इतना ज्यादा मेल है कि मैं भली-भांति अविश्वास भी नही कर पाता। उदाहरण के तौर पर कुछ और बातों का जिक्र करना चाहूँगा।
एक स्मृति है उस वक़्त की, जब मैंने थोडा थोडा बैठना सीखा था। उन दिनों, हमारे इलाक़े मे बन्दर बहुत हुआ करते थे। हर किसी की छत पर अचार, सूखे आम (और कभी कभी चावल-गेंहू भी) सूखने को रखा होता था। तो बन्दर आते और जो उस वक़्त तक अपनी चीजें नही समेट पाते, उनके छत की चीजें बडे मजे मे खाते। दूर से ही लोग बंदरों को देखकर अपनी अपनी चीजें समेटने लगते। तो एक दिन, मैं अपने घर की छत पर चुपचाप बैठा खेल रहा हूँगा। बच्चों को खेलने के लिए किसी के साथ की आवश्यकता तो होती नही। रोज की तरह बन्दर आये और लोगों ने सामान समेटना शुरू किया। हडबडी मे लोग भूल ही गए कि मैं भी एक सामान ही हूँ जिसे समेटने की आवश्यकता है। अब जिसके पास बुद्धि ना हो उसे डर काहे का? मैं निर्भीक अपनी दुनिया मे खोया रहा। परंतु बुद्धिमान लोगों के पास भय नामधारी जो 'विवेक' होता है उससे वो कैसे बचें? फिर क्या था? माँ का रोना, दादी का चिल्लाना एवं बुआओं का सिसकना प्रारम्भ! कोशिश करें तो यह भी दुनिया के आश्चर्यों मे स्थान पा सकता है कि ना बंदरों को कोई तकलीफ है ना उन से घिरे बालक को! परंतु, बाक़ी लोगों को उसमे बड़ा कष्ट हो रहा है। खैर, अंततः मेरे पिताश्री ने वीरोचित कदम उठाते हुए उन बंदरों को ललकारा। (अब उन्होने मेरे प्रेम से वशीभूत होकर ऐसा किया या नारी-मंडल के क्रन्दन से ऊब कर - ये तो वही बता पाएंगे) पहले डंडों से, पत्थरों से बंदरों को भड़काने की चेष्टा की गयी। पर बन्दर तो बन्दर ही ठहरे ना? उन्हें इस खेल मे मजा आने लगा। ना जाने कितनी देर उनका ये खेल चला। फिर मेरे पिताजी के सब्र का बाँध टूट ही गया और उन्होने बंदरों को मल्ल युद्ध के लिए आमंत्रित किया। अब मेरे दिमाग मे उस अदभूत कुश्ती का चित्र इस तरह छप गया कि आज भी मैं वो दृश्य याद कर सकता हूँ।
थोड़े बडे होने पर यह कहानी मैंने जब अपने परिवार के सदस्यों को सुनायी तो पापा ने हँसते हुए कहा, "तुमने वो कहानी किसी से सुनी होगी। उतनी छोटी उम्र का किसी को कुछ याद नही रहता"।
"लेकिन ऐसा भी तो हो सकता है कि मुझे याद हो।" मैंने प्रतिवाद किया।
"हाँ! तुम ही सबसे बडे विद्वान होने वाले हो। दुनिया मे आजतक तुम्हारे जैसी यादाश्त किसी की नही हुई। वाह!" पिताजी के स्वर मे छुपा व्यंग्य मुझे उस वक़्त भी समझ मे आया था। और उस वक्त भी व्यंग्य मुझे चुभता था। (यद्यपि पिताजी इस बात को भी नजरअंदाज करते हुए एक व्यंग्य प्रस्तुत कर देंगे)।
बाद मे मैंने अपनी माँ को वो जगह दिखायी जहाँ यह सब हुआ था। अब माँ को कितना विश्वास हुआ, ये तो पता नही! परंतु, माँ ने मेरी बात पर कोई व्यंग्य नही किया। क्या माँ की भी ऐसी कोई स्मृति थी, जिसपर हर कोई संदेह करता था? मैंने पूछने की बहुत कोशिश की परंतु एक ही जवाब मिला, 'जाओ, खेलो! पागल!'
शनिवार, जून 16
गीता पर मेरी आस्था
कई लोगों के बचपन का जिक्र सुनते सुनते यदा-कदा मुझे ऐसा लगता है मानों मैंने बचपन मे कोई शरारत की ही नहीं। अपने कई मित्रों के बचपन की तसवीरें देखकर हर वक़्त मुझे अपनी तसवीरें ना होने का अहसास होता है। कुल जमा ३ या ४ तसवीरें होंगी मेरे बचपन की। सो, मैं बचपन मे कैसा दिखता था अगर यह बताऊं तो कितना सही कह पाऊँगा - यह पता नहीं। अभी आइना देखता हूँ तो बिल्कुल भरोसा नहीं होता कि बचपन मे इतना सुंदर दिखने वाला रुप ऐसा आकार भी ले सकता है। लेकिन ऐसी ही कुछ बातें हैं जिनसे गीता सच्ची जान पड़ती है। (जी हाँ! मैं श्रीमद्भागवत गीता की ही बात कर रहा हूँ। 'परिवर्तन संसार का नियम है' - कुछ याद आया?) इस परिवर्तन के नकारात्मक प्रभाव क्या हैं - यह नही बताऊंगा. एक सकारात्मक प्रभाव यह हुआ कि गीता पर मेरी आस्था बिल्कुल पक्की हो गयी। 'यदा यदा हि रूपस्य ग्लानिर्भवति भारतम...!'
तस्वीरों की जो कमी मुझे बचपन मे खली, वो बुढ़ापे मे ना खले - इस कारण अब कहीँ भी कैमरे के क्लिक के अन्दर आने के लिए जो उत्साह मैं दिखाता हूँ, वह उत्साह यदि किसी रचनात्मक कार्य मे दिखाता तो मेरे साथ साथ तनिक समाज का भी भला हो जाता। ऐसा नहीं है कि मैं बहुत 'फोटोजेनिक' हूँ, अगर होता तो यहाँ इन आड़े-टेढ़े शब्दो मे अपने रूप का व्याख्यान देने कि बजाय अपनी सुन्दर सी तस्वीर ना लगाता? पर यहाँ महत्ता सुन्दरता की नहीं, तस्वीरों की संख्या का है।
गीता में लिखा है कि यह शरीर केवल आवरण मात्र है। परंतु उस वक़्त गीता के भारी भरकम श्लोकों का अर्थ ही कहाँ पता था? कोई गीता बोले तो लगता था कि पड़ोस वाली लडकी को आवाज लगाया जा रहा है। सारांश यह कि मेरे घरवालों को कभी कभी मेरे रंग को लेकर बड़ी चिंता होती थी। पर हर माँ की तरह मेरी माँ को भी अपना बेटा सुन्दर ही जान पड़ता था। लोगों को कहा करती थी कि लड़के का रंग सांवला ही अच्छा होता है। (अंगूर खट्टे तो नहीं थे?)। भले ही उसे गीता का ज्ञान नहीं था, परंतु कृष्ण के रंग के विषय मे संदेह की कोई गुंजाइश ना थी। 'कृष्ण का रंग भी मेरे बेटे के रंग के जैसा ही है.'
फिर एक दिन घर के बाहरी कमरे में कृष्ण एवं राम की तसवीरें भी लगा दी गयीं। जब भी कोई मुझे देख कर मेरे रंग से सम्बंधित सवाल उठाता, मेरे घर के सारे सदस्यों की निगाहें भगवान् की उस सांवली तस्वीर की ओर चली जाती। और दादी तो मन ही मन कुछ कुछ प्रार्थना भी करना प्रारम्भ कर देती थी। बेचारे कहने वाले को स्वयम ही अपनी गलती याद आ जाती और उनकी बात की समाप्ति इस तरह की पंक्तियों से होती: 'कुछ भी कहिये रंग तो कन्हैया जैसा पाया है', 'ऐसा तेज जिसके चेहरे पर हो, उसे देख के तो राम की मूरत ही याद आती है'।
जैसे जैसे लोगों ने इस तरह की सच्ची झूठी बातों से मेरे घरवालों का मन बहलाना शुरू किया वैसे वैसे यह विश्वास प्रखर हो उठा कि नैसर्गिक सुन्दरता के साथ जन्मा बालक है यह। और फिर जनम कुंडली भी तो कहती थी कि 'जातक बड़ा तेजस्वी होगा।' धीरे धीरे इसका असर ऐसा हुआ कि मेरे दादाजी का नित्य होने वाला रामचरित मानस का पाठ, अब मेरे साथ सम्पन्न होने लगा। 'आख़िर बालपन से ही संस्कार डालने चाहिऐ ना।? अभिमन्यु ने तो गर्भ से ही विद्या आरम्भ कर दी थी।' शायद दादाजी को अपनी देरी का थोडा पछतावा भी रहा ही होगा। (यद्यपि उन्होने इस बात का जिक्र कभी किसी से ना किया)।
अब सोचता हूँ तो बहुत गुस्सा आता है। अजी यह क्या बात हुई? मैं कुछ कह नहीं सकता था इसका तात्पर्य यह कि सब लोग मुझे प्रताड़ित करने के नए नए उपाय ढूंढें। कल्पना करता हूँ तो सिहर उठता हूँ। मुझे भूख लगी है और खाने-पीने की जगह कानों को कष्ट मिल रहा है। "असक्तबुद्धिः सर्वत्र जितात्मा विगत स्पृहः....अर्थात जिसे किसी चीज का मोह नहीं, जिसकी कोई इच्छा नहीं... " अन्याय का इससे अच्छा वर्णन और कहाँ मिलेगा? एक भूखे बालक को वीतरागी होने का संदेश...??? आज कोई ऐसी चेष्टा करे तो शायद गीता उसके सर पर लगेगी।
कभी कभी मुझे भगवान् विष्णु से बड़ी चिढ मचती है। (भगवान् माफ़ करें! आप पर मेरी आस्था अनन्य है!) आख़िर माखन चुराने वाले कृष्ण को मेरा रंग चुराने की क्या जरूरत आन पड़ी? और भगवान् राम...काहे के मर्यादा पुरुषोत्तम? अपने लिए कोई उत्तम रंग तक ना चुन सके? बालपन मे ऐसी अवधारणा के पीछे कोई तर्क तो होता नहीं। फिर भी मुझे ऐसा लगता था कि अगर इन देवताओं का रंग तनिक अलग होता तो मुझे भी सरसों के तेल के बदले 'जॉन्सन' वाला पाउडर लगाया जाता।
हमारे गावों में ऐसा माना जाता है कि सरसों का तेल शिशुओं के लिए अत्यंत लाभदायक होता है। अब लाभ कितना मिला, इसका ज्ञान तो जी क्या कहूं? (सदा अपनी मित्र मंडळी मे कमजोरों की ही श्रेणी मे रखा जाता रहा हूँ) हाँ ! रंग थोडा और निखरा! साँवले सा शरीर अब काला क्यों दिखता है, यह सोचता हूँ तो लगता है कि संसार मे सरसों के तेल का प्रयोग खाने-पीने की वस्तुओं तक ही सीमित कर देना उचित होगा।
मेरी छोटी बहन का जन्म मुझसे तीन साल के अंतराल पर हुआ था। उसका रंग तो शायद कच्चे बादाम जैसा था। (अब दादी यही कहा करती थी) मैंने तब तक कच्चा बादाम नहीं देखा था। पर मेरी बुद्धि मे इतनी बात जरूर आ गयी थी कि अगर बादाम को कच्चा बना दो तो वह मेरी बहन जैसा दिखने लगेगा। शायद यह रंग कृष्ण भगवान् के रंग से नहीं मिलता था तो उसे सफ़ेद रंग का आटा लगाया जाता है। (उस वक़्त जॉन्सन ऎंड जॉन्सन के पाउडर और आटे में अंतर कहाँ जानता था?) लेकिन लाख कोशिशों के बाद भी मेरी बहन कृष्ण जैसी नहीं हो पायी। काला और काला हो गया था, सफ़ेद और सफ़ेद होता गया।
कुछ लोग कहते हैं कि लडकी होना बड़ा दुखद होता है। होता होगा। परंतु एक बात जो मेरी समझ मे आयी थी वो यह कि मेरी बहन को कभी किसी ने गीता सुना कर तंग नहीं किया। ना ही उसे सुबह शाम मानस कि चौपायियां सुनायी जाती थी।
बहुत वक्त बीतने के बाद एक दिन गीता भी पढ़ ही ली मैंने। आश्चर्य होता है कि एक छोटे दफ्तर का बड़ा बाबू (मेरे दादाजी) गीता की पेचीदगी सम्न्झने की कोशिश मे लगा रहता था। अरे, जिसे दिन रात काम ही काम हो वो 'निष्काम' को क्या समझेगा? पर फिर भी उनकी कोशिश देख कर तो बचपन मे मैं इस किताब के प्रति उतनी ही श्रध्दा रखता था जितनी की दीवार पर टंगे उस कैलेंडर की।
अब दादाजी नहीं रहे। दीवार भी बदल गयी है। और वो कैलेंडर तो मेरे बहन के जन्म के समय ही उतार दिया गया था (माँ दुर्गा की तस्वीर ने उसकी जगह ली थी) इतने बदलाव आ चुके परंतु गीता एवं रामचरित मानस के प्रति मेरी श्रध्दा आज भी अटूट है। और आज भी भूखे पेट मुझे गीता सुननी अच्छी नहीं लगती।
तस्वीरों की जो कमी मुझे बचपन मे खली, वो बुढ़ापे मे ना खले - इस कारण अब कहीँ भी कैमरे के क्लिक के अन्दर आने के लिए जो उत्साह मैं दिखाता हूँ, वह उत्साह यदि किसी रचनात्मक कार्य मे दिखाता तो मेरे साथ साथ तनिक समाज का भी भला हो जाता। ऐसा नहीं है कि मैं बहुत 'फोटोजेनिक' हूँ, अगर होता तो यहाँ इन आड़े-टेढ़े शब्दो मे अपने रूप का व्याख्यान देने कि बजाय अपनी सुन्दर सी तस्वीर ना लगाता? पर यहाँ महत्ता सुन्दरता की नहीं, तस्वीरों की संख्या का है।
गीता में लिखा है कि यह शरीर केवल आवरण मात्र है। परंतु उस वक़्त गीता के भारी भरकम श्लोकों का अर्थ ही कहाँ पता था? कोई गीता बोले तो लगता था कि पड़ोस वाली लडकी को आवाज लगाया जा रहा है। सारांश यह कि मेरे घरवालों को कभी कभी मेरे रंग को लेकर बड़ी चिंता होती थी। पर हर माँ की तरह मेरी माँ को भी अपना बेटा सुन्दर ही जान पड़ता था। लोगों को कहा करती थी कि लड़के का रंग सांवला ही अच्छा होता है। (अंगूर खट्टे तो नहीं थे?)। भले ही उसे गीता का ज्ञान नहीं था, परंतु कृष्ण के रंग के विषय मे संदेह की कोई गुंजाइश ना थी। 'कृष्ण का रंग भी मेरे बेटे के रंग के जैसा ही है.'
फिर एक दिन घर के बाहरी कमरे में कृष्ण एवं राम की तसवीरें भी लगा दी गयीं। जब भी कोई मुझे देख कर मेरे रंग से सम्बंधित सवाल उठाता, मेरे घर के सारे सदस्यों की निगाहें भगवान् की उस सांवली तस्वीर की ओर चली जाती। और दादी तो मन ही मन कुछ कुछ प्रार्थना भी करना प्रारम्भ कर देती थी। बेचारे कहने वाले को स्वयम ही अपनी गलती याद आ जाती और उनकी बात की समाप्ति इस तरह की पंक्तियों से होती: 'कुछ भी कहिये रंग तो कन्हैया जैसा पाया है', 'ऐसा तेज जिसके चेहरे पर हो, उसे देख के तो राम की मूरत ही याद आती है'।
जैसे जैसे लोगों ने इस तरह की सच्ची झूठी बातों से मेरे घरवालों का मन बहलाना शुरू किया वैसे वैसे यह विश्वास प्रखर हो उठा कि नैसर्गिक सुन्दरता के साथ जन्मा बालक है यह। और फिर जनम कुंडली भी तो कहती थी कि 'जातक बड़ा तेजस्वी होगा।' धीरे धीरे इसका असर ऐसा हुआ कि मेरे दादाजी का नित्य होने वाला रामचरित मानस का पाठ, अब मेरे साथ सम्पन्न होने लगा। 'आख़िर बालपन से ही संस्कार डालने चाहिऐ ना।? अभिमन्यु ने तो गर्भ से ही विद्या आरम्भ कर दी थी।' शायद दादाजी को अपनी देरी का थोडा पछतावा भी रहा ही होगा। (यद्यपि उन्होने इस बात का जिक्र कभी किसी से ना किया)।
अब सोचता हूँ तो बहुत गुस्सा आता है। अजी यह क्या बात हुई? मैं कुछ कह नहीं सकता था इसका तात्पर्य यह कि सब लोग मुझे प्रताड़ित करने के नए नए उपाय ढूंढें। कल्पना करता हूँ तो सिहर उठता हूँ। मुझे भूख लगी है और खाने-पीने की जगह कानों को कष्ट मिल रहा है। "असक्तबुद्धिः सर्वत्र जितात्मा विगत स्पृहः....अर्थात जिसे किसी चीज का मोह नहीं, जिसकी कोई इच्छा नहीं... " अन्याय का इससे अच्छा वर्णन और कहाँ मिलेगा? एक भूखे बालक को वीतरागी होने का संदेश...??? आज कोई ऐसी चेष्टा करे तो शायद गीता उसके सर पर लगेगी।
कभी कभी मुझे भगवान् विष्णु से बड़ी चिढ मचती है। (भगवान् माफ़ करें! आप पर मेरी आस्था अनन्य है!) आख़िर माखन चुराने वाले कृष्ण को मेरा रंग चुराने की क्या जरूरत आन पड़ी? और भगवान् राम...काहे के मर्यादा पुरुषोत्तम? अपने लिए कोई उत्तम रंग तक ना चुन सके? बालपन मे ऐसी अवधारणा के पीछे कोई तर्क तो होता नहीं। फिर भी मुझे ऐसा लगता था कि अगर इन देवताओं का रंग तनिक अलग होता तो मुझे भी सरसों के तेल के बदले 'जॉन्सन' वाला पाउडर लगाया जाता।
हमारे गावों में ऐसा माना जाता है कि सरसों का तेल शिशुओं के लिए अत्यंत लाभदायक होता है। अब लाभ कितना मिला, इसका ज्ञान तो जी क्या कहूं? (सदा अपनी मित्र मंडळी मे कमजोरों की ही श्रेणी मे रखा जाता रहा हूँ) हाँ ! रंग थोडा और निखरा! साँवले सा शरीर अब काला क्यों दिखता है, यह सोचता हूँ तो लगता है कि संसार मे सरसों के तेल का प्रयोग खाने-पीने की वस्तुओं तक ही सीमित कर देना उचित होगा।
मेरी छोटी बहन का जन्म मुझसे तीन साल के अंतराल पर हुआ था। उसका रंग तो शायद कच्चे बादाम जैसा था। (अब दादी यही कहा करती थी) मैंने तब तक कच्चा बादाम नहीं देखा था। पर मेरी बुद्धि मे इतनी बात जरूर आ गयी थी कि अगर बादाम को कच्चा बना दो तो वह मेरी बहन जैसा दिखने लगेगा। शायद यह रंग कृष्ण भगवान् के रंग से नहीं मिलता था तो उसे सफ़ेद रंग का आटा लगाया जाता है। (उस वक़्त जॉन्सन ऎंड जॉन्सन के पाउडर और आटे में अंतर कहाँ जानता था?) लेकिन लाख कोशिशों के बाद भी मेरी बहन कृष्ण जैसी नहीं हो पायी। काला और काला हो गया था, सफ़ेद और सफ़ेद होता गया।
कुछ लोग कहते हैं कि लडकी होना बड़ा दुखद होता है। होता होगा। परंतु एक बात जो मेरी समझ मे आयी थी वो यह कि मेरी बहन को कभी किसी ने गीता सुना कर तंग नहीं किया। ना ही उसे सुबह शाम मानस कि चौपायियां सुनायी जाती थी।
बहुत वक्त बीतने के बाद एक दिन गीता भी पढ़ ही ली मैंने। आश्चर्य होता है कि एक छोटे दफ्तर का बड़ा बाबू (मेरे दादाजी) गीता की पेचीदगी सम्न्झने की कोशिश मे लगा रहता था। अरे, जिसे दिन रात काम ही काम हो वो 'निष्काम' को क्या समझेगा? पर फिर भी उनकी कोशिश देख कर तो बचपन मे मैं इस किताब के प्रति उतनी ही श्रध्दा रखता था जितनी की दीवार पर टंगे उस कैलेंडर की।
अब दादाजी नहीं रहे। दीवार भी बदल गयी है। और वो कैलेंडर तो मेरे बहन के जन्म के समय ही उतार दिया गया था (माँ दुर्गा की तस्वीर ने उसकी जगह ली थी) इतने बदलाव आ चुके परंतु गीता एवं रामचरित मानस के प्रति मेरी श्रध्दा आज भी अटूट है। और आज भी भूखे पेट मुझे गीता सुननी अच्छी नहीं लगती।
शुक्रवार, जून 15
और इस तरह हुआ नामकरण
मेरे घर मे ज्योतिष विद्या को बहुत ज्यादा अहमियत दी जाती है, ऐसा मुझे कभी नही लगा। लेकिन मेरे जन्म के उपरांत मेरे दादा जी ने मेरी जन्म कुंडली जरूर बनवायी। और वो भी एक नही बल्कि दो-दो। दरअसल हुआ ये कि पहले ज्योतिषी को या तो ज्योतिष का ज्ञान कम था या फिर उन्हें इस बात का ज्ञान शुन्य था की मेरे दादाजी मेरी कुंडली मे क्या देखना चाहते हैं। उन्होने 'गलती' से मेरी कुंडली मे इस बात का जिक्र कर दिया कि लड़के मे नेता बनने के लक्षण हैं। अब भला इतने खतरनाक कैरियर वाले कुंडली को कोई मानना चाहे भी तो कैसे? तो इस कारण मेरी दुसरी कुंडली बनायीं दादाजी के ही एक ज्योतिषी मित्र ने। अब उन्होने ज्योतिष का उपयोग कितना किया इसका तो मुझे ज्ञान नही परंतु मित्रता का धर्म निभाते हुए 'नेता' शब्द का जिक्र तक ना किया।
एक बात मे दोनो ज्योतिषी बिल्कुल सहमत थे कि मेरे नाम का प्रारम्भ 'य' से होना चाहिऐ। जहाँ पहले ने मेरा नामकरण 'योधनारायण सिंह' किया वहीँ दादाजी के मित्र ज्योतिषी ने यह कहते हुए कि यह बहुत ही यशस्वी होगा (मित्रता धर्म?) मेरा नाम 'यशवंत' रखा। इसके अलावा भी ना जाने कितनी सच्ची झूठी बातें लिखी थी। कालांतर मे मैंने ज्योतिष का सतही अध्ययन केवल इसलिये किया ताकि मैं जान सकूं कि दोनो मे से सच्ची बाते किसने की हैं।
हमारे इलाक़े मे एक मान्यता है कि पुकारने का नाम कुंडली के नाम से अलग होना चाहिऐ। तो पुरे परिवार मे अपने अपने नामों की खूबसूरती पर वाद विवाद प्रारम्भ हो गया। मेरी माँ और दादी तो किसी मामले मे कुछ बोलती नही परंतु मेरी दोनो बुआओं मे तो मानो युद्ध ही हो गया। जितने लोग उतनी मांगें। पापा को किसी सुपर हीरो जैसा नाम चाहिऐ था तो दादाजी को जरा हटके। समस्त नारी-मंडल तो मानो 'सुन्दर' शब्द को पकड के बैठ गया था। उस समय मेरी क्या हालत रही होगी इसकी कल्पना मात्र से ही सिहर उठता हूँ। एक नवजात शिशु के चारों ओर लोग जब पुराण खोल के नामों की सुन्दरात्मक एवं गुणात्मक विश्लेषण कर रहे हो, उस वक़्त अबोध बालक रोने के सिवा और कर भी क्या सकता है?
खैर, अंत मे विजयश्री मिली मेरे पिताश्री को। उन्हें पॉकेट बुक्स पढने का बहुत शौक़ था। उस उम्र के लोग जानते होंगे कि उस समय 'विजय-विकास सीरीज' बहुत ही ज्यादा प्रचलन मे था। मेरे पापा को विकास का चरित्र बहुत ही ज्यादा पसंद हुआ करता था। तो उन्होने बाक़ी सबको इस नाम की सुन्दरता पर एक बड़ा ही प्रभावशाली एवं ऐतिहासिक लेक्चर दिया। (ऐतिहासिक इसलिये क्यूंकि उसी भाषण से मेरा नाम निर्धारित हुआ) दादाजी को छोड़कर बाक़ी सबलोग सहमत हो गए। पापा के लेक्चर का असर थोडा सा तो उन पर भी हुआ था। लेकिन समस्या यह थी कि 'हर दुसरे-तीसरे का नाम विकास होता है'. काफी विचार के उपरांत यह निर्धारित हुआ कि विकास को विकाश मे परिवर्तित कर देने से दादाजी की समस्या का संतोषजनक हल संभव है। फिर क्या था, प्रस्ताव सर्वसम्मति से पारित हुआ। और मेरा नाम दिया गया 'विकाश कुमार'। कुमार इसलिये क्यूंकि बिहार मे कुंवारे लड़को के नाम मे कुमार लगाने का प्रचलन है। हमारे इलाक़े मे 'स' और 'श' के उच्चारण मे बहुत अधिक सावधानी नही बरती जाती। तो मुझे दादाजी के अलावा किसी ने विकाश नही पुकारा। बिकास, बिकसवा, बिक्सी इत्यादी अनेक नाम मिले मुझे परंतु श तो मानो विलुप्त ही हो गया था।
बाद मे मेरा आप्भ्रंशिक नाम अपने मूलरूप मे कैसे आया इसकी कहानी भी बड़ी अजीब है। लेकिन उसे समझने के लिए कुछ और बातों का जानना आवश्यक है अतः वो कहानी बाद मे बताऊंगा। अभी बस इतना कह दूं की दादाजी का 'श' उनकी मृत्यु के मात्र कुछ दिनों बाद ही मेरे नाम से विलुप्त हो गया। फिर भी मैं हिंदी मे भले ही विकास लिखूं पर उनकी भावनाओं का सम्मान करते हुए अंग्रेजी मे हमेशा vikash ही लिखता रहा हूँ और आजीवन लिखता रहूँगा।
एक बात मे दोनो ज्योतिषी बिल्कुल सहमत थे कि मेरे नाम का प्रारम्भ 'य' से होना चाहिऐ। जहाँ पहले ने मेरा नामकरण 'योधनारायण सिंह' किया वहीँ दादाजी के मित्र ज्योतिषी ने यह कहते हुए कि यह बहुत ही यशस्वी होगा (मित्रता धर्म?) मेरा नाम 'यशवंत' रखा। इसके अलावा भी ना जाने कितनी सच्ची झूठी बातें लिखी थी। कालांतर मे मैंने ज्योतिष का सतही अध्ययन केवल इसलिये किया ताकि मैं जान सकूं कि दोनो मे से सच्ची बाते किसने की हैं।
हमारे इलाक़े मे एक मान्यता है कि पुकारने का नाम कुंडली के नाम से अलग होना चाहिऐ। तो पुरे परिवार मे अपने अपने नामों की खूबसूरती पर वाद विवाद प्रारम्भ हो गया। मेरी माँ और दादी तो किसी मामले मे कुछ बोलती नही परंतु मेरी दोनो बुआओं मे तो मानो युद्ध ही हो गया। जितने लोग उतनी मांगें। पापा को किसी सुपर हीरो जैसा नाम चाहिऐ था तो दादाजी को जरा हटके। समस्त नारी-मंडल तो मानो 'सुन्दर' शब्द को पकड के बैठ गया था। उस समय मेरी क्या हालत रही होगी इसकी कल्पना मात्र से ही सिहर उठता हूँ। एक नवजात शिशु के चारों ओर लोग जब पुराण खोल के नामों की सुन्दरात्मक एवं गुणात्मक विश्लेषण कर रहे हो, उस वक़्त अबोध बालक रोने के सिवा और कर भी क्या सकता है?
खैर, अंत मे विजयश्री मिली मेरे पिताश्री को। उन्हें पॉकेट बुक्स पढने का बहुत शौक़ था। उस उम्र के लोग जानते होंगे कि उस समय 'विजय-विकास सीरीज' बहुत ही ज्यादा प्रचलन मे था। मेरे पापा को विकास का चरित्र बहुत ही ज्यादा पसंद हुआ करता था। तो उन्होने बाक़ी सबको इस नाम की सुन्दरता पर एक बड़ा ही प्रभावशाली एवं ऐतिहासिक लेक्चर दिया। (ऐतिहासिक इसलिये क्यूंकि उसी भाषण से मेरा नाम निर्धारित हुआ) दादाजी को छोड़कर बाक़ी सबलोग सहमत हो गए। पापा के लेक्चर का असर थोडा सा तो उन पर भी हुआ था। लेकिन समस्या यह थी कि 'हर दुसरे-तीसरे का नाम विकास होता है'. काफी विचार के उपरांत यह निर्धारित हुआ कि विकास को विकाश मे परिवर्तित कर देने से दादाजी की समस्या का संतोषजनक हल संभव है। फिर क्या था, प्रस्ताव सर्वसम्मति से पारित हुआ। और मेरा नाम दिया गया 'विकाश कुमार'। कुमार इसलिये क्यूंकि बिहार मे कुंवारे लड़को के नाम मे कुमार लगाने का प्रचलन है। हमारे इलाक़े मे 'स' और 'श' के उच्चारण मे बहुत अधिक सावधानी नही बरती जाती। तो मुझे दादाजी के अलावा किसी ने विकाश नही पुकारा। बिकास, बिकसवा, बिक्सी इत्यादी अनेक नाम मिले मुझे परंतु श तो मानो विलुप्त ही हो गया था।
बाद मे मेरा आप्भ्रंशिक नाम अपने मूलरूप मे कैसे आया इसकी कहानी भी बड़ी अजीब है। लेकिन उसे समझने के लिए कुछ और बातों का जानना आवश्यक है अतः वो कहानी बाद मे बताऊंगा। अभी बस इतना कह दूं की दादाजी का 'श' उनकी मृत्यु के मात्र कुछ दिनों बाद ही मेरे नाम से विलुप्त हो गया। फिर भी मैं हिंदी मे भले ही विकास लिखूं पर उनकी भावनाओं का सम्मान करते हुए अंग्रेजी मे हमेशा vikash ही लिखता रहा हूँ और आजीवन लिखता रहूँगा।
अवतार नही, जन्म: एक चिराग का
जी हाँ! बिल्कुल सामान्य शब्दों मे कहूं तो यही कह पाऊँगा कि मेरा जन्म किसी महापुरुष के अवतरण की तरह असाधारण नही वरन सरल, सामान्य एवं प्रत्याशित था। पटना के एक छोटे से अस्पताल में। लोग कहते थे कि उस वक़्त बहुत तेज बारिश हो रही थी और बाढ़ का प्रकोप भी मंडरा रहा था। (क्यों? कृष्ण का जन्म याद नही आया?) एक निम्न मध्यम वर्गीय परिवार में लड़कों के जन्म की महत्ता कितनी अधिक होती है इसका ज्ञान तो हर इन्सान को होगा ही। कालांतर से मुझे ज्ञात हुआ कि मेरे माता पिता को लड़के और लड़कियों में जो सामजिक अंतर होना चाहिये, उसका ज्ञान तनिक कम था। क्योंकि मेरी छोटी बहन और मुझमे कभी इस बात को लेकर भेद बरता गया, इसका स्मरण मुझे नही होता। यद्यपि घर के बडे सदस्यों को इस बात की ख़ुशी थी कि खानदान का पहला 'चिराग' लड़का है।
मैं अपने घर वालों के लिए कोई साधारण लड़का नही था। माता पिता की शादी के ६ साल बाद बहुत ही मन्नतों के बाद आया था। मेरी माँ और पापा को छोड़कर हर किसी ने किसी ना किसी देवी-देवता से मेरे जन्म की मन्नत माँग रखी थी। ये अलग बात है कि वो सारे मन्नत आजतक पुरे नही हुए कभी वक्त की कमी तो कभी पैसों की। आज भी मेरी दादी और बुआ बार-बार मेरी मन्नत उतारने का यत्न करती हैं। पर ना जाने भगवान् मेरे दर्शन लेकर मुझे कृतार्थ क्यों नही करना चाहते।
खैर, पहले जन्म वाली बात! एक अजीब बात हुई थी उस दिन। उस दिन, बाढ़ के कारण शहर के अधिकांश अस्पताल बंद पडे थे। तो, मेरे वाले अस्पताल में बड़ी भीड़ थी। वहाँ ३२ बच्चों का उस दिन जन्म हुआ। और मजे की बात ये कि सारे लड़के थे। और मैं था उन सबमे सबसे बड़ा, जन्म: सुबह के ५:३० बजे। तो डाक्टरनी साहिबा ने मेरे घर वालों से अस्पताल के खर्चे के पैसे ही नही लिए। उनके अनुसार मैं बहुत शुभ, सुंदर और (शायद) गुणवान था। अब, मेरे घर वाले पैसे बचने पर ज्यादा खुश हुए होंगे या बेटे के जन्म पर, यह सोचता हूँ तो निःसंदेह संदेह में पड़ जाता हूँ। घर वालों से बाद मे जितना प्यार मिला, उसे देखकर तो मैं फिलहाल यही निष्कर्ष निकालता हूँ कि उन्हें मेरे जन्म कि ख़ुशी ही अधिक थी। फिर भी पहली संतान के जन्म के बाद जितने हंगामे होते हैं, वो सारे हुए भी तो उसका ज्ञान मुझे आजतक नही हुआ। और जन्मदिन मनाने को तो शायद मेरे घरवाले फ़िज़ूल खर्ची समझते होंगे। उस वक्त उन्हें इस प्रथा का ज्ञान था भी या नही, इस बारे मे भी मैं ठीक ठीक नही बता सकता। अगर अंदाज लगाना ही पड़े तो मैं 'ना' को ही प्राथमिकता दूंगा।
पैसे बचने की जो थोड़ी बहुत ख़ुशी अगर मेरे घरवालों को हुई भी होगी तो मैं उसे उनका अज्ञान समझूंगा। क्यूंकि आज इतने साल बीतने के बाद उन्हें इस बात का ज्ञान भली भांति हो चुका है कि वो बचत तूफ़ान से पहले वाली शांति जैसी थी।
मैं अपने घर वालों के लिए कोई साधारण लड़का नही था। माता पिता की शादी के ६ साल बाद बहुत ही मन्नतों के बाद आया था। मेरी माँ और पापा को छोड़कर हर किसी ने किसी ना किसी देवी-देवता से मेरे जन्म की मन्नत माँग रखी थी। ये अलग बात है कि वो सारे मन्नत आजतक पुरे नही हुए कभी वक्त की कमी तो कभी पैसों की। आज भी मेरी दादी और बुआ बार-बार मेरी मन्नत उतारने का यत्न करती हैं। पर ना जाने भगवान् मेरे दर्शन लेकर मुझे कृतार्थ क्यों नही करना चाहते।
खैर, पहले जन्म वाली बात! एक अजीब बात हुई थी उस दिन। उस दिन, बाढ़ के कारण शहर के अधिकांश अस्पताल बंद पडे थे। तो, मेरे वाले अस्पताल में बड़ी भीड़ थी। वहाँ ३२ बच्चों का उस दिन जन्म हुआ। और मजे की बात ये कि सारे लड़के थे। और मैं था उन सबमे सबसे बड़ा, जन्म: सुबह के ५:३० बजे। तो डाक्टरनी साहिबा ने मेरे घर वालों से अस्पताल के खर्चे के पैसे ही नही लिए। उनके अनुसार मैं बहुत शुभ, सुंदर और (शायद) गुणवान था। अब, मेरे घर वाले पैसे बचने पर ज्यादा खुश हुए होंगे या बेटे के जन्म पर, यह सोचता हूँ तो निःसंदेह संदेह में पड़ जाता हूँ। घर वालों से बाद मे जितना प्यार मिला, उसे देखकर तो मैं फिलहाल यही निष्कर्ष निकालता हूँ कि उन्हें मेरे जन्म कि ख़ुशी ही अधिक थी। फिर भी पहली संतान के जन्म के बाद जितने हंगामे होते हैं, वो सारे हुए भी तो उसका ज्ञान मुझे आजतक नही हुआ। और जन्मदिन मनाने को तो शायद मेरे घरवाले फ़िज़ूल खर्ची समझते होंगे। उस वक्त उन्हें इस प्रथा का ज्ञान था भी या नही, इस बारे मे भी मैं ठीक ठीक नही बता सकता। अगर अंदाज लगाना ही पड़े तो मैं 'ना' को ही प्राथमिकता दूंगा।
पैसे बचने की जो थोड़ी बहुत ख़ुशी अगर मेरे घरवालों को हुई भी होगी तो मैं उसे उनका अज्ञान समझूंगा। क्यूंकि आज इतने साल बीतने के बाद उन्हें इस बात का ज्ञान भली भांति हो चुका है कि वो बचत तूफ़ान से पहले वाली शांति जैसी थी।
भूमिका
बहुत दिनों से मन मे यह इच्छा थी की अपने अनुभवों को शब्दों की माला पहनाऊँ परंतु मन हमेशा बचने के बहाने ढूँढ लेता था। कुछ दिनों पहले मैं एक आदरणीय व्यक्ति को अपने कुछ संस्मरण सुना रहा था। मेरी बातें सुन कर उन्हें उत्सुकता और आश्चर्य के जिस सागर में डुबकियां लगाते देखा यह वर्णनातीत है। उनकी ही प्रेरणा से लिखने का साहस कर रहा हूँ। यहाँ कितने लोग इसे पढेंगे और कितनों को इसे पढ़ कर आनंद आएगा, इसकी गणना अगर मैं करने लगूं तो शायद कभी कुछ ना लिख पाऊँगा। वैसे भी मेरी भावनाये, अनुभव या शब्द इतने परिष्कृत नही की मैं उन्हें समीक्षकों की भीड़ में अकेला छोड़ दूं। अगर आप सचमुच इसे पढ़ रहे हैं तो मैं आपका आभारी हूँ। और यदि आपने कष्ट करके मेरी गलतियों की ओर इशारा किया, कुछ टिप्पणियां लिखीं, मेरा मार्गदर्शन एवं उत्साहवर्धन किया, तो समझ लीजिये की मैं आपका ऋणी हो गया।
भूमिका लंबी हो रही है अतः सीधे काम की बात पर आता हूँ। इस कहानी को कहानी की जगह आत्मकथा कहूं तो शायद यह ज्यादा सही होगा। यद्यपि मैं इतना बड़ा आदमी नही हूँ जिसकी आत्म कथा मे किसी को दिलचस्पी हो पर यदि आपको कहानी मान कर भी इसे पढने मे आनन्द आ जाये, तो मैं खुद को धन्य समझूंगा।
यह कहानी है एक साधारण से इन्सान की, जो मेहनत या भाग्य (दोनो मे से जो आपका दिल करे, चुन लें) की बदौलत जमीन से आसमान तक आ पहूँचा। यह अनवरत चलने वाले संघर्ष की गाथा है। यह कहानी है परिस्थितियो एवं सपनों के बीच झूलते एक ऐसे बालक की जिसने हमेशा अपने सपनों को खुद से भी आगे रखा। शायद कुछ लोग इस कहानी से बोर हो जाएँ। परंतु अगर एक प्राणी भी इससे प्रेरित हो सका तो मैं अपने प्रयास को सफल कहने लग जाऊँगा।
वक्त की कमी के कारण लिखने की निरंतरता कितनी कायम रह पायेगी यह नही जानता। फिर भी कोशिश करूंगा कि जो भी इक्के दुक्के पाठक हो उन्हें इंतेजार ना करना पड़े।
कहानी के नाम भले ही काल्पनिक हों, परंतु उसके पात्र वास्तविक हैं- इसका विश्वास दिलाता हूँ। मेरे अनुभवों मे जिनका भी हाथ है, उन सबका आभार प्रकट करता हूँ। और इस प्रारम्भ के अंत मे माँ सरस्वती से कृपा की याचना करता हूँ।
भूमिका लंबी हो रही है अतः सीधे काम की बात पर आता हूँ। इस कहानी को कहानी की जगह आत्मकथा कहूं तो शायद यह ज्यादा सही होगा। यद्यपि मैं इतना बड़ा आदमी नही हूँ जिसकी आत्म कथा मे किसी को दिलचस्पी हो पर यदि आपको कहानी मान कर भी इसे पढने मे आनन्द आ जाये, तो मैं खुद को धन्य समझूंगा।
यह कहानी है एक साधारण से इन्सान की, जो मेहनत या भाग्य (दोनो मे से जो आपका दिल करे, चुन लें) की बदौलत जमीन से आसमान तक आ पहूँचा। यह अनवरत चलने वाले संघर्ष की गाथा है। यह कहानी है परिस्थितियो एवं सपनों के बीच झूलते एक ऐसे बालक की जिसने हमेशा अपने सपनों को खुद से भी आगे रखा। शायद कुछ लोग इस कहानी से बोर हो जाएँ। परंतु अगर एक प्राणी भी इससे प्रेरित हो सका तो मैं अपने प्रयास को सफल कहने लग जाऊँगा।
वक्त की कमी के कारण लिखने की निरंतरता कितनी कायम रह पायेगी यह नही जानता। फिर भी कोशिश करूंगा कि जो भी इक्के दुक्के पाठक हो उन्हें इंतेजार ना करना पड़े।
कहानी के नाम भले ही काल्पनिक हों, परंतु उसके पात्र वास्तविक हैं- इसका विश्वास दिलाता हूँ। मेरे अनुभवों मे जिनका भी हाथ है, उन सबका आभार प्रकट करता हूँ। और इस प्रारम्भ के अंत मे माँ सरस्वती से कृपा की याचना करता हूँ।
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