शनिवार, जून 16

गीता पर मेरी आस्था

कई लोगों के बचपन का जिक्र सुनते सुनते यदा-कदा मुझे ऐसा लगता है मानों मैंने बचपन मे कोई शरारत की ही नहीं। अपने कई मित्रों के बचपन की तसवीरें देखकर हर वक़्त मुझे अपनी तसवीरें ना होने का अहसास होता है। कुल जमा ३ या ४ तसवीरें होंगी मेरे बचपन की। सो, मैं बचपन मे कैसा दिखता था अगर यह बताऊं तो कितना सही कह पाऊँगा - यह पता नहीं। अभी आइना देखता हूँ तो बिल्कुल भरोसा नहीं होता कि बचपन मे इतना सुंदर दिखने वाला रुप ऐसा आकार भी ले सकता है। लेकिन ऐसी ही कुछ बातें हैं जिनसे गीता सच्ची जान पड़ती है। (जी हाँ! मैं श्रीमद्भागवत गीता की ही बात कर रहा हूँ। 'परिवर्तन संसार का नियम है' - कुछ याद आया?) इस परिवर्तन के नकारात्मक प्रभाव क्या हैं - यह नही बताऊंगा. एक सकारात्मक प्रभाव यह हुआ कि गीता पर मेरी आस्था बिल्कुल पक्की हो गयी। 'यदा यदा हि रूपस्य ग्लानिर्भवति भारतम...!'

तस्वीरों की जो कमी मुझे बचपन मे खली, वो बुढ़ापे मे ना खले - इस कारण अब कहीँ भी कैमरे के क्लिक के अन्दर आने के लिए जो उत्साह मैं दिखाता हूँ, वह उत्साह यदि किसी रचनात्मक कार्य मे दिखाता तो मेरे साथ साथ तनिक समाज का भी भला हो जाता। ऐसा नहीं है कि मैं बहुत 'फोटोजेनिक' हूँ, अगर होता तो यहाँ इन आड़े-टेढ़े शब्दो मे अपने रूप का व्याख्यान देने कि बजाय अपनी सुन्दर सी तस्वीर ना लगाता? पर यहाँ महत्ता सुन्दरता की नहीं, तस्वीरों की संख्या का है।

गीता में लिखा है कि यह शरीर केवल आवरण मात्र है। परंतु उस वक़्त गीता के भारी भरकम श्लोकों का अर्थ ही कहाँ पता था? कोई गीता बोले तो लगता था कि पड़ोस वाली लडकी को आवाज लगाया जा रहा है। सारांश यह कि मेरे घरवालों को कभी कभी मेरे रंग को लेकर बड़ी चिंता होती थी। पर हर माँ की तरह मेरी माँ को भी अपना बेटा सुन्दर ही जान पड़ता था। लोगों को कहा करती थी कि लड़के का रंग सांवला ही अच्छा होता है। (अंगूर खट्टे तो नहीं थे?)। भले ही उसे गीता का ज्ञान नहीं था, परंतु कृष्ण के रंग के विषय मे संदेह की कोई गुंजाइश ना थी। 'कृष्ण का रंग भी मेरे बेटे के रंग के जैसा ही है.'

फिर एक दिन घर के बाहरी कमरे में कृष्ण एवं राम की तसवीरें भी लगा दी गयीं। जब भी कोई मुझे देख कर मेरे रंग से सम्बंधित सवाल उठाता, मेरे घर के सारे सदस्यों की निगाहें भगवान् की उस सांवली तस्वीर की ओर चली जाती। और दादी तो मन ही मन कुछ कुछ प्रार्थना भी करना प्रारम्भ कर देती थी। बेचारे कहने वाले को स्वयम ही अपनी गलती याद आ जाती और उनकी बात की समाप्ति इस तरह की पंक्तियों से होती: 'कुछ भी कहिये रंग तो कन्हैया जैसा पाया है', 'ऐसा तेज जिसके चेहरे पर हो, उसे देख के तो राम की मूरत ही याद आती है'।

जैसे जैसे लोगों ने इस तरह की सच्ची झूठी बातों से मेरे घरवालों का मन बहलाना शुरू किया वैसे वैसे यह विश्वास प्रखर हो उठा कि नैसर्गिक सुन्दरता के साथ जन्मा बालक है यह। और फिर जनम कुंडली भी तो कहती थी कि 'जातक बड़ा तेजस्वी होगा।' धीरे धीरे इसका असर ऐसा हुआ कि मेरे दादाजी का नित्य होने वाला रामचरित मानस का पाठ, अब मेरे साथ सम्पन्न होने लगा। 'आख़िर बालपन से ही संस्कार डालने चाहिऐ ना।? अभिमन्यु ने तो गर्भ से ही विद्या आरम्भ कर दी थी।' शायद दादाजी को अपनी देरी का थोडा पछतावा भी रहा ही होगा। (यद्यपि उन्होने इस बात का जिक्र कभी किसी से ना किया)।


अब सोचता हूँ तो बहुत गुस्सा आता है। अजी यह क्या बात हुई? मैं कुछ कह नहीं सकता था इसका तात्पर्य यह कि सब लोग मुझे प्रताड़ित करने के नए नए उपाय ढूंढें। कल्पना करता हूँ तो सिहर उठता हूँ। मुझे भूख लगी है और खाने-पीने की जगह कानों को कष्ट मिल रहा है। "असक्तबुद्धिः सर्वत्र जितात्मा विगत स्पृहः....अर्थात जिसे किसी चीज का मोह नहीं, जिसकी कोई इच्छा नहीं... " अन्याय का इससे अच्छा वर्णन और कहाँ मिलेगा? एक भूखे बालक को वीतरागी होने का संदेश...??? आज कोई ऐसी चेष्टा करे तो शायद गीता उसके सर पर लगेगी।

कभी कभी मुझे भगवान् विष्णु से बड़ी चिढ मचती है। (भगवान् माफ़ करें! आप पर मेरी आस्था अनन्य है!) आख़िर माखन चुराने वाले कृष्ण को मेरा रंग चुराने की क्या जरूरत आन पड़ी? और भगवान् राम...काहे के मर्यादा पुरुषोत्तम? अपने लिए कोई उत्तम रंग तक ना चुन सके? बालपन मे ऐसी अवधारणा के पीछे कोई तर्क तो होता नहीं। फिर भी मुझे ऐसा लगता था कि अगर इन देवताओं का रंग तनिक अलग होता तो मुझे भी सरसों के तेल के बदले 'जॉन्सन' वाला पाउडर लगाया जाता।

हमारे गावों में ऐसा माना जाता है कि सरसों का तेल शिशुओं के लिए अत्यंत लाभदायक होता है। अब लाभ कितना मिला, इसका ज्ञान तो जी क्या कहूं? (सदा अपनी मित्र मंडळी मे कमजोरों की ही श्रेणी मे रखा जाता रहा हूँ) हाँ ! रंग थोडा और निखरा! साँवले सा शरीर अब काला क्यों दिखता है, यह सोचता हूँ तो लगता है कि संसार मे सरसों के तेल का प्रयोग खाने-पीने की वस्तुओं तक ही सीमित कर देना उचित होगा।

मेरी छोटी बहन का जन्म मुझसे तीन साल के अंतराल पर हुआ था। उसका रंग तो शायद कच्चे बादाम जैसा था। (अब दादी यही कहा करती थी) मैंने तब तक कच्चा बादाम नहीं देखा था। पर मेरी बुद्धि मे इतनी बात जरूर आ गयी थी कि अगर बादाम को कच्चा बना दो तो वह मेरी बहन जैसा दिखने लगेगा। शायद यह रंग कृष्ण भगवान् के रंग से नहीं मिलता था तो उसे सफ़ेद रंग का आटा लगाया जाता है। (उस वक़्त जॉन्सन ऎंड जॉन्सन के पाउडर और आटे में अंतर कहाँ जानता था?) लेकिन लाख कोशिशों के बाद भी मेरी बहन कृष्ण जैसी नहीं हो पायी। काला और काला हो गया था, सफ़ेद और सफ़ेद होता गया।

कुछ लोग कहते हैं कि लडकी होना बड़ा दुखद होता है। होता होगा। परंतु एक बात जो मेरी समझ मे आयी थी वो यह कि मेरी बहन को कभी किसी ने गीता सुना कर तंग नहीं किया। ना ही उसे सुबह शाम मानस कि चौपायियां सुनायी जाती थी।

बहुत वक्त बीतने के बाद एक दिन गीता भी पढ़ ही ली मैंने। आश्चर्य होता है कि एक छोटे दफ्तर का बड़ा बाबू (मेरे दादाजी) गीता की पेचीदगी सम्न्झने की कोशिश मे लगा रहता था। अरे, जिसे दिन रात काम ही काम हो वो 'निष्काम' को क्या समझेगा? पर फिर भी उनकी कोशिश देख कर तो बचपन मे मैं इस किताब के प्रति उतनी ही श्रध्दा रखता था जितनी की दीवार पर टंगे उस कैलेंडर की।

अब दादाजी नहीं रहे। दीवार भी बदल गयी है। और वो कैलेंडर तो मेरे बहन के जन्म के समय ही उतार दिया गया था (माँ दुर्गा की तस्वीर ने उसकी जगह ली थी) इतने बदलाव आ चुके परंतु गीता एवं रामचरित मानस के प्रति मेरी श्रध्दा आज भी अटूट है। और आज भी भूखे पेट मुझे गीता सुननी अच्छी नहीं लगती।

7 टिप्‍पणियां:

dpkraj ने कहा…

विकास जीं,
आपका लेख पढकर प्रसन्नता हुई । ऐस लगता है कि हम एक विचार के साथ हैं ।
दीपक भारतदीप

Manish Kumar ने कहा…

एक अच्छे लेखक होने के सारे कीटाणु मौजूद हैं आप में।

आलोक कुमार ने कहा…

ha ha ha....bahut khoob....aapki kahaani mujhse poori tarah alag hai...
bahut dilchasp upanyaas hai...aur aage likhiye...maza aayega :))

Vikash ने कहा…

धन्यवाद। उत्साहवर्धन करते रहें।

Amrita.. ने कहा…

BAhut hi badhiya likha hai!
jaise hi meri aankho ke saamne ye page khula...man me vichaar aaya...hey bhagwaan itna bada lekh...socha window close kar du...fir socha ab jab page khol hi liya hai to kam se kam kuch panktiya to padh hi lu...

kuch panktiya padhte padhte kab poora lekh padh gayi pata hi chala :)
bhasha pravaah to acchha hai hi ..apni aap biti ko bahut hi safalta se -dilchusp banakar prastut kiya hai aapne...
very nice..
padh kar maja AAYA!!!!!!!!!!
Likhte rahiye...
hum padhte rahenge!

Vikash ने कहा…

'नयी सुबह जी'! पसंद करने के लिए आभार आपका!
आशा करता हूँ कि आगे भी आपकी आशाओं पर खरा उतरूँगा।

Shilpa Agrawal ने कहा…

Vikaas ji kaale hain to kya hua aap kalam waale hain. kalam se kaale ko safed aur safed ko kaala banaane ki kshamta hai aapke paas. aapki rachna parhkar bachpan mein hone waale mere aur mere bhai ke beech ke jhagdon kee yaadein taaza ho gayi, jab woh mujhe Chhipkali aur main use kaaluram keh kar chirhaati thi. Aaj barhe hokar bhi bachpan ke un sambodhanon ki punaravratti kar lete hain.