कहते हैं कि भारत के गावों की सबसे बड़ी समस्या यह है कि लोग शिक्षा के प्रति जागरूक नही होते। शायद किसी हद तक यह बात सही भी होगी। परंतु मेरे घर मे शिक्षा को जितना महत्व दिया जाता था, उसे अगर कोई देख लेता तो हमारे गाँव इतने बदनाम नही होते। ऐसा नही था कि मेरा घर शिक्षित लोगों का गढ़ था . मेरे दादाजी शिक्षा विभाग मे एक क्लर्क थे। और इकलौते वही थे जो यदा कदा सात बजे वाले हिंदी समाचार छूट जाने के पश्चात अंग्रेजी समाचार के बुलेटिन से काम चला पाते थे। मेरे पिताजी ने दसवी तक की पढायी के बाद कृषि विज्ञान मे डिप्लोमा की पढायी की थी। (और उस समय उन्हें पता भी नही था कि आगे चलकर कृषि उनके जीवन मे एक अहम भूमिका निभायेगा।) उन्होने कितनी पढायी की और कितनी मस्ती - इसका विवरण मैं यहां नही देना चाहता। बस इतना बता दूं कि उन्होने कपड़ों की एक दुकान खोली थी। पढायी मे उनकी रूचि कितनी थी - ये तो अब जाहिर सी बात है। हाँ! लोग कहते हैं कि मेरे माँ पढने मे बहुत तेज थी। परतु दुर्भाग्य से वो एक स्त्री थी। अतः उसे पढना उचित नही समझा गया। यहां तक कि दसवी की परीक्षा भी उसने अपनी शादी के उपरांत उत्तीर्ण की।
सो मेरा घर शिक्षितों का जमावड़ा तो बिल्कुल नही था। परंतु उन्हें शिक्षा के महत्व के बारे मे जबर्दस्त ज्ञान था। खासकर मेरे दादाजी को। इस कारण बचपन से ही मुझे पढाया जाने लगा। तब मैंने बोलना भी नही सीखा था और दादाजी रोज सुबह शाम मुझे 'पापा' और 'दादा' जैसे शब्दों को सिखाने के बदले, गिनती वगैरह सिखाया करते थे। शायद इसीलिये मेरे मुख से निकला पहला शब्द अन्य बच्चों की तरह पापा, नाना, दादा या मामा नही था। आप कितनी भी कोशिश कर लें लेकिन मुझे पूरा यकीं है कि आप मेरे पहले शब्द का ठीक ठीक अनुमान नही लगा सकेंगे। 'फूल' - जी हाँ! ये था मेरा पहला शब्द! क्यों? आपका अनुमान गलत साबित हुआ ना? इसे सुनकर तरह तरह की अवधारणाये बनायीं जाने लगी। कुछ लोगों ने कहा की मैं प्रकृति प्रेमी बनूँगा, कुछ लोगों को मुझमे कवि बनने के लक्षण दिखे तो कुछ के लिए ये बिल्कुल साधारण सी बात थी (बच्चा दिन भर फूल के साथ ही रहता है। तो इसमे आश्चर्य क्या? मेरे घर मे ढ़ेर सारे फूल के पौधे थे)।
सो मेरा घर शिक्षितों का जमावड़ा तो बिल्कुल नही था। परंतु उन्हें शिक्षा के महत्व के बारे मे जबर्दस्त ज्ञान था। खासकर मेरे दादाजी को। इस कारण बचपन से ही मुझे पढाया जाने लगा। तब मैंने बोलना भी नही सीखा था और दादाजी रोज सुबह शाम मुझे 'पापा' और 'दादा' जैसे शब्दों को सिखाने के बदले, गिनती वगैरह सिखाया करते थे। शायद इसीलिये मेरे मुख से निकला पहला शब्द अन्य बच्चों की तरह पापा, नाना, दादा या मामा नही था। आप कितनी भी कोशिश कर लें लेकिन मुझे पूरा यकीं है कि आप मेरे पहले शब्द का ठीक ठीक अनुमान नही लगा सकेंगे। 'फूल' - जी हाँ! ये था मेरा पहला शब्द! क्यों? आपका अनुमान गलत साबित हुआ ना? इसे सुनकर तरह तरह की अवधारणाये बनायीं जाने लगी। कुछ लोगों ने कहा की मैं प्रकृति प्रेमी बनूँगा, कुछ लोगों को मुझमे कवि बनने के लक्षण दिखे तो कुछ के लिए ये बिल्कुल साधारण सी बात थी (बच्चा दिन भर फूल के साथ ही रहता है। तो इसमे आश्चर्य क्या? मेरे घर मे ढ़ेर सारे फूल के पौधे थे)।
खैर, पहले पढायी वाली बात। रोज सुबह दादाजी के द्वारा किया जाने वाला मेहनत व्यर्थ नहीं गया क्यूंकि मैं अपनी उम्र के सभी बच्चों से तेज था। पापा मुझपर गर्व करते, दादी मिन्नतें मानती और माँ नजरें उतरती। हर बालक का प्रथम विद्यालय उसका परिवार होता है। मेरे संदर्भ मे यह बात अक्षरशः सत्य थी। क्यूंकि नर्सरी, एल.के.जी और यु.के.जी के लिए मैंने किसी विद्यालय का कोई सहारा नहीं लिया।
6 टिप्पणियां:
बहुत ही मर्मस्पर्शी लेख है…
काफी सहजता से कई सारी बाते कह दी जो आम रुप से समझना हम नहीं चाहते…
शिक्षा भारत के लिए बहुत आवश्यक है और इस लेख से हमें बहुत कुछ सीखना चाहिए!!!
आप जरुर प्रकृति प्रेमी हैं तभी इतना सुन्दर चिट्ठा बनाया है। स्वागत है हिन्दी चिट्ठाजगत में।
bahut he achha lekh.
बड़ी ही सरलता से आपने बात कही है। निश्चय ही आपके परिवार वालों को आप पर गर्व होगा!
बहुत ही सच्चा लेख । बडी सहजता से अपनी बात कही है आपने । ईश्वर से प्रार्थना है कि गाँव के सारे घर आपके घर की तरह हो जायें ।
Gum ke sagar me khabhi doob na jana,
Manjil na payo toh toot na jana,
Zindgi me agar dost ki kami mehsush ho
Toh hum jinda ye bhool na jaana.....
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