मेरे घर मे ज्योतिष विद्या को बहुत ज्यादा अहमियत दी जाती है, ऐसा मुझे कभी नही लगा। लेकिन मेरे जन्म के उपरांत मेरे दादा जी ने मेरी जन्म कुंडली जरूर बनवायी। और वो भी एक नही बल्कि दो-दो। दरअसल हुआ ये कि पहले ज्योतिषी को या तो ज्योतिष का ज्ञान कम था या फिर उन्हें इस बात का ज्ञान शुन्य था की मेरे दादाजी मेरी कुंडली मे क्या देखना चाहते हैं। उन्होने 'गलती' से मेरी कुंडली मे इस बात का जिक्र कर दिया कि लड़के मे नेता बनने के लक्षण हैं। अब भला इतने खतरनाक कैरियर वाले कुंडली को कोई मानना चाहे भी तो कैसे? तो इस कारण मेरी दुसरी कुंडली बनायीं दादाजी के ही एक ज्योतिषी मित्र ने। अब उन्होने ज्योतिष का उपयोग कितना किया इसका तो मुझे ज्ञान नही परंतु मित्रता का धर्म निभाते हुए 'नेता' शब्द का जिक्र तक ना किया।
एक बात मे दोनो ज्योतिषी बिल्कुल सहमत थे कि मेरे नाम का प्रारम्भ 'य' से होना चाहिऐ। जहाँ पहले ने मेरा नामकरण 'योधनारायण सिंह' किया वहीँ दादाजी के मित्र ज्योतिषी ने यह कहते हुए कि यह बहुत ही यशस्वी होगा (मित्रता धर्म?) मेरा नाम 'यशवंत' रखा। इसके अलावा भी ना जाने कितनी सच्ची झूठी बातें लिखी थी। कालांतर मे मैंने ज्योतिष का सतही अध्ययन केवल इसलिये किया ताकि मैं जान सकूं कि दोनो मे से सच्ची बाते किसने की हैं।
हमारे इलाक़े मे एक मान्यता है कि पुकारने का नाम कुंडली के नाम से अलग होना चाहिऐ। तो पुरे परिवार मे अपने अपने नामों की खूबसूरती पर वाद विवाद प्रारम्भ हो गया। मेरी माँ और दादी तो किसी मामले मे कुछ बोलती नही परंतु मेरी दोनो बुआओं मे तो मानो युद्ध ही हो गया। जितने लोग उतनी मांगें। पापा को किसी सुपर हीरो जैसा नाम चाहिऐ था तो दादाजी को जरा हटके। समस्त नारी-मंडल तो मानो 'सुन्दर' शब्द को पकड के बैठ गया था। उस समय मेरी क्या हालत रही होगी इसकी कल्पना मात्र से ही सिहर उठता हूँ। एक नवजात शिशु के चारों ओर लोग जब पुराण खोल के नामों की सुन्दरात्मक एवं गुणात्मक विश्लेषण कर रहे हो, उस वक़्त अबोध बालक रोने के सिवा और कर भी क्या सकता है?
खैर, अंत मे विजयश्री मिली मेरे पिताश्री को। उन्हें पॉकेट बुक्स पढने का बहुत शौक़ था। उस उम्र के लोग जानते होंगे कि उस समय 'विजय-विकास सीरीज' बहुत ही ज्यादा प्रचलन मे था। मेरे पापा को विकास का चरित्र बहुत ही ज्यादा पसंद हुआ करता था। तो उन्होने बाक़ी सबको इस नाम की सुन्दरता पर एक बड़ा ही प्रभावशाली एवं ऐतिहासिक लेक्चर दिया। (ऐतिहासिक इसलिये क्यूंकि उसी भाषण से मेरा नाम निर्धारित हुआ) दादाजी को छोड़कर बाक़ी सबलोग सहमत हो गए। पापा के लेक्चर का असर थोडा सा तो उन पर भी हुआ था। लेकिन समस्या यह थी कि 'हर दुसरे-तीसरे का नाम विकास होता है'. काफी विचार के उपरांत यह निर्धारित हुआ कि विकास को विकाश मे परिवर्तित कर देने से दादाजी की समस्या का संतोषजनक हल संभव है। फिर क्या था, प्रस्ताव सर्वसम्मति से पारित हुआ। और मेरा नाम दिया गया 'विकाश कुमार'। कुमार इसलिये क्यूंकि बिहार मे कुंवारे लड़को के नाम मे कुमार लगाने का प्रचलन है। हमारे इलाक़े मे 'स' और 'श' के उच्चारण मे बहुत अधिक सावधानी नही बरती जाती। तो मुझे दादाजी के अलावा किसी ने विकाश नही पुकारा। बिकास, बिकसवा, बिक्सी इत्यादी अनेक नाम मिले मुझे परंतु श तो मानो विलुप्त ही हो गया था।
बाद मे मेरा आप्भ्रंशिक नाम अपने मूलरूप मे कैसे आया इसकी कहानी भी बड़ी अजीब है। लेकिन उसे समझने के लिए कुछ और बातों का जानना आवश्यक है अतः वो कहानी बाद मे बताऊंगा। अभी बस इतना कह दूं की दादाजी का 'श' उनकी मृत्यु के मात्र कुछ दिनों बाद ही मेरे नाम से विलुप्त हो गया। फिर भी मैं हिंदी मे भले ही विकास लिखूं पर उनकी भावनाओं का सम्मान करते हुए अंग्रेजी मे हमेशा vikash ही लिखता रहा हूँ और आजीवन लिखता रहूँगा।
5 टिप्पणियां:
वाह क्या किस्सा है. लिखते भी खुब हो. लगता है नेता न सही लेखक जरूर अच्छे बनोगे.
अच्छा है। नाम के आगे के काम जानने के लिये इंतजार रहेगा!
kya khub likhte ho "vikash" kumar :)
अभी तक तो झेलने वाली अनुभूति नहीं हुई :)
अंत में थोडी सी भावुकता की गुंजाईश और थी, कभी-कभी पाठकों की भावनाओं से भी खेलना चाहिए
धन्यवाद आप सबों का।
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