अगर मैं पूछूं कि आपके बचपन की पहली स्मृति क्या है तो क्या कहेंगे? कुछ ना कुछ तो जवाब होगा ही आपके पास। मेरे पास भी इस प्रश्न का जवाब सदा सर्वदा से रहा है। परंतु आजतक मैंने एक भी ऐसा प्राणी नही देखा, जिसे मेरे उत्तर पर संदेह ना हो। मुझे पुरा भरोसा है कि आप भी मेरे जवाब को एक बेहुदे लेखक की कोरी कल्पना समझकर नजरअंदाज कर देंगे। पर फिर भी, मैं सत्य बतलाने के अपने लेखक धर्म का निर्वाह कर के ही रहूँगा। तो सत्य यह है कि मेरे बचपन की पहली स्मृति तब की है जब मैंने बैठना भी नही सीखा था। जी हाँ! मैं उस वक़्त बैठना सीख रहा था।
उस वक़्त लोगों को मुझे बैठना सिखलाने मे बड़ा मजा आता। पर मुझे? सत्य कहता हूँ, बड़ी तकलीफ होती थी। जब भी कोई मुझे बिठाता, थोड़ी देर तक तो सब ठीक होता। परंतु कुछ समय बाद ऐसा प्रतीत होता, मानो सामने की जमीन मे एक ढाल सा आ गया हो और मैं उस ढलान के सहारे लुढ़कने वाला हूँ। घबराकर मैं पीछे की ओर झुकता तो लगता मानो आगे की ढाल अब पीछे की ओर भी बननी शुरू हो गयी है। धीरे धीरे मुझे अपने चारों ओर ढलान ही ढलान दिखायी देने लगती। मैं घबराकर अपनी आँखें बंद कर लेता और लोगों को मेरे गिरने का पता चल जाये इसलिये पूरी शक्ति से रोना प्रारम्भ कर देता।
क्यों? आपको भी विश्वास नही हुआ ना मेरी पहली स्मृति पर? अब मुझे अपनी बात को सच साबित करने का कोई मार्ग तो नही पता परंतु एक बात पर गौर कीजियेगा। अगली बार जब भी किसी ऐसे बालक को, जो बैठना सीख रहा हो, गिरते देखें तो मेरी बात याद कीजियेगा। ध्यान से देखियेगा! गिरते वक़्त उसकी आँखें भी बंद होंगी। वो चीख कर अपनी अनुभूति तो आपको ना बता पायेगा। परंतु उसकी बंद पलकों से मेरी बात की सत्यता जरूर सिद्ध होगी। और हाँ! उस बालक को मेरी अबोध स्मृति का गवाह बनने के लिए मेरी ओर से धन्यवाद देना और उसे बताना कि इस विश्व मे एक मनुष्य ऐसा है जो उसके मन की पीड़ा समझता है।
इस तरह की कई स्मृतियाँ हैं जो बार बार मेरे मनो मस्तिष्क पर दस्तक देती रहती हैं। परंतु, इन बातों पर लोगों का अविश्वास देखते देखते, कभी कभी ऐसा लगता है मानो वो सारी बातें मेरी कल्पना की उपज थी। (आख़िर आज की कल्पनाशक्ति के कुछ बीज उस वक़्त भी रहे होंगे ना?) परंतु कुछ यादों का हक़ीकत से इतना ज्यादा मेल है कि मैं भली-भांति अविश्वास भी नही कर पाता। उदाहरण के तौर पर कुछ और बातों का जिक्र करना चाहूँगा।
एक स्मृति है उस वक़्त की, जब मैंने थोडा थोडा बैठना सीखा था। उन दिनों, हमारे इलाक़े मे बन्दर बहुत हुआ करते थे। हर किसी की छत पर अचार, सूखे आम (और कभी कभी चावल-गेंहू भी) सूखने को रखा होता था। तो बन्दर आते और जो उस वक़्त तक अपनी चीजें नही समेट पाते, उनके छत की चीजें बडे मजे मे खाते। दूर से ही लोग बंदरों को देखकर अपनी अपनी चीजें समेटने लगते। तो एक दिन, मैं अपने घर की छत पर चुपचाप बैठा खेल रहा हूँगा। बच्चों को खेलने के लिए किसी के साथ की आवश्यकता तो होती नही। रोज की तरह बन्दर आये और लोगों ने सामान समेटना शुरू किया। हडबडी मे लोग भूल ही गए कि मैं भी एक सामान ही हूँ जिसे समेटने की आवश्यकता है। अब जिसके पास बुद्धि ना हो उसे डर काहे का? मैं निर्भीक अपनी दुनिया मे खोया रहा। परंतु बुद्धिमान लोगों के पास भय नामधारी जो 'विवेक' होता है उससे वो कैसे बचें? फिर क्या था? माँ का रोना, दादी का चिल्लाना एवं बुआओं का सिसकना प्रारम्भ! कोशिश करें तो यह भी दुनिया के आश्चर्यों मे स्थान पा सकता है कि ना बंदरों को कोई तकलीफ है ना उन से घिरे बालक को! परंतु, बाक़ी लोगों को उसमे बड़ा कष्ट हो रहा है। खैर, अंततः मेरे पिताश्री ने वीरोचित कदम उठाते हुए उन बंदरों को ललकारा। (अब उन्होने मेरे प्रेम से वशीभूत होकर ऐसा किया या नारी-मंडल के क्रन्दन से ऊब कर - ये तो वही बता पाएंगे) पहले डंडों से, पत्थरों से बंदरों को भड़काने की चेष्टा की गयी। पर बन्दर तो बन्दर ही ठहरे ना? उन्हें इस खेल मे मजा आने लगा। ना जाने कितनी देर उनका ये खेल चला। फिर मेरे पिताजी के सब्र का बाँध टूट ही गया और उन्होने बंदरों को मल्ल युद्ध के लिए आमंत्रित किया। अब मेरे दिमाग मे उस अदभूत कुश्ती का चित्र इस तरह छप गया कि आज भी मैं वो दृश्य याद कर सकता हूँ।
थोड़े बडे होने पर यह कहानी मैंने जब अपने परिवार के सदस्यों को सुनायी तो पापा ने हँसते हुए कहा, "तुमने वो कहानी किसी से सुनी होगी। उतनी छोटी उम्र का किसी को कुछ याद नही रहता"।
"लेकिन ऐसा भी तो हो सकता है कि मुझे याद हो।" मैंने प्रतिवाद किया।
"हाँ! तुम ही सबसे बडे विद्वान होने वाले हो। दुनिया मे आजतक तुम्हारे जैसी यादाश्त किसी की नही हुई। वाह!" पिताजी के स्वर मे छुपा व्यंग्य मुझे उस वक़्त भी समझ मे आया था। और उस वक्त भी व्यंग्य मुझे चुभता था। (यद्यपि पिताजी इस बात को भी नजरअंदाज करते हुए एक व्यंग्य प्रस्तुत कर देंगे)।
बाद मे मैंने अपनी माँ को वो जगह दिखायी जहाँ यह सब हुआ था। अब माँ को कितना विश्वास हुआ, ये तो पता नही! परंतु, माँ ने मेरी बात पर कोई व्यंग्य नही किया। क्या माँ की भी ऐसी कोई स्मृति थी, जिसपर हर कोई संदेह करता था? मैंने पूछने की बहुत कोशिश की परंतु एक ही जवाब मिला, 'जाओ, खेलो! पागल!'
7 टिप्पणियां:
टेम्पलेट सुन्दर है, साथ ही रचना भी.
अच्छा लिखा है.
आप ही सही हैं.. एक बच्चे का दिमाग खाली स्लेट की तरह होता है और उस पर जो छप जाता है वो पतथर पर लिखी इबारत की तरह होता है...इसीलिये हादसो से गुजरने के वाद कुछ बच्चे दोबारा उभर व पनप नहीं पाते... आप को जरूर वो सीन याद रहा होगा
Aapki baaton se poori tarah itefaaq rakhti hun.. yaaddaasht ke maamle mein bahut see aisee baaten mujhe yaad hain.. jo jinke saath hui unhe yaad nahi.. ajeeb laga na sunkar..par sach hai.. bachpan ki bhi kaafee smirtiyan jo saamnyath log yaad nahi rakhte.. aur yakin ahi karte.. aur "paagal ho tum" aise wisheshn mil jaate hain.. par koi bata nahi.. mujhe yakin hai ki wo sach hai.. aap bhi ye yakin rakhiye.. koi aur kare na kare kya fark padta hai..
Apna likha baut prabhaawshali hai.. aur anth mein 'MAA' ka ullekh.. uar unka kuch na kahna aur batana.. bhaut kuch kah gaya..
aapki yaaddast ki daad deni hogi...waise ismmein jyaada sanshay mujhe nahii hai kyunki itni badi-badi kavitaayen shuddh-shuddh aapke hi munh se kanthasth suna hoon...:))
Sach kahu to shayad mujhe itna yaad nahi jitna tumhe yaad hai..ha bachpan ki kuch dhundli tasveer jaroor mastish ke kisi kone me basi hui hai .
Per mai tumhari baton aur yadon per vishvaas ker sakti hu kyoki kuch yadein to mere paas bhi hai...
Achha likha hai!per mujhe lagta hai tum aur acchha likh sakte the!
PAdh kar accha laga!
Keep writing1
संजय जी...! पहली बार किसी ने टेम्पलेट की प्रशंसा की है। धन्यवाद आपका!
मोहिंदर जी, आते रहें। :)
मान्या जी! जिस तरह आपने अन्तिम कथन की सूक्ष्मता को पकडा, मैं आपका कायल हो गया।
धन्यवाद आलोक! मेरी यादाश्त पर सशय ना करने के लिए। :)
नयी सुबह जी!कोशिश करूंगा की आपकी आशाओं पर खड़ा उतर सकूं। वैसे कोशिश तो की ही थी, तनिक और परिश्रम की आवश्यकता जान पड़ती है.
i really love d way u narrate things...it is always engrossing. and aap apne pathakon ko apne lekha kaa ek hissa bana kar chalte hain...an active participant and not a passive1....isiliye koi chaah kar bhi aapki kriti ko adhoora chodh k nahin jaa sakta.... and regarding this particular write up, i personally likd d way u ended it... papa aur maa ka zikr, the different ways of reacting to ur wrds... and vo adhoora saa ant jo aapne chod diyaa hai dat shows d mental state of a child who mst have witnessd this... d end actually adds on to d honest appeal that ur writing has...
bst wishes
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