जी हाँ! बिल्कुल सामान्य शब्दों मे कहूं तो यही कह पाऊँगा कि मेरा जन्म किसी महापुरुष के अवतरण की तरह असाधारण नही वरन सरल, सामान्य एवं प्रत्याशित था। पटना के एक छोटे से अस्पताल में। लोग कहते थे कि उस वक़्त बहुत तेज बारिश हो रही थी और बाढ़ का प्रकोप भी मंडरा रहा था। (क्यों? कृष्ण का जन्म याद नही आया?) एक निम्न मध्यम वर्गीय परिवार में लड़कों के जन्म की महत्ता कितनी अधिक होती है इसका ज्ञान तो हर इन्सान को होगा ही। कालांतर से मुझे ज्ञात हुआ कि मेरे माता पिता को लड़के और लड़कियों में जो सामजिक अंतर होना चाहिये, उसका ज्ञान तनिक कम था। क्योंकि मेरी छोटी बहन और मुझमे कभी इस बात को लेकर भेद बरता गया, इसका स्मरण मुझे नही होता। यद्यपि घर के बडे सदस्यों को इस बात की ख़ुशी थी कि खानदान का पहला 'चिराग' लड़का है।
मैं अपने घर वालों के लिए कोई साधारण लड़का नही था। माता पिता की शादी के ६ साल बाद बहुत ही मन्नतों के बाद आया था। मेरी माँ और पापा को छोड़कर हर किसी ने किसी ना किसी देवी-देवता से मेरे जन्म की मन्नत माँग रखी थी। ये अलग बात है कि वो सारे मन्नत आजतक पुरे नही हुए कभी वक्त की कमी तो कभी पैसों की। आज भी मेरी दादी और बुआ बार-बार मेरी मन्नत उतारने का यत्न करती हैं। पर ना जाने भगवान् मेरे दर्शन लेकर मुझे कृतार्थ क्यों नही करना चाहते।
खैर, पहले जन्म वाली बात! एक अजीब बात हुई थी उस दिन। उस दिन, बाढ़ के कारण शहर के अधिकांश अस्पताल बंद पडे थे। तो, मेरे वाले अस्पताल में बड़ी भीड़ थी। वहाँ ३२ बच्चों का उस दिन जन्म हुआ। और मजे की बात ये कि सारे लड़के थे। और मैं था उन सबमे सबसे बड़ा, जन्म: सुबह के ५:३० बजे। तो डाक्टरनी साहिबा ने मेरे घर वालों से अस्पताल के खर्चे के पैसे ही नही लिए। उनके अनुसार मैं बहुत शुभ, सुंदर और (शायद) गुणवान था। अब, मेरे घर वाले पैसे बचने पर ज्यादा खुश हुए होंगे या बेटे के जन्म पर, यह सोचता हूँ तो निःसंदेह संदेह में पड़ जाता हूँ। घर वालों से बाद मे जितना प्यार मिला, उसे देखकर तो मैं फिलहाल यही निष्कर्ष निकालता हूँ कि उन्हें मेरे जन्म कि ख़ुशी ही अधिक थी। फिर भी पहली संतान के जन्म के बाद जितने हंगामे होते हैं, वो सारे हुए भी तो उसका ज्ञान मुझे आजतक नही हुआ। और जन्मदिन मनाने को तो शायद मेरे घरवाले फ़िज़ूल खर्ची समझते होंगे। उस वक्त उन्हें इस प्रथा का ज्ञान था भी या नही, इस बारे मे भी मैं ठीक ठीक नही बता सकता। अगर अंदाज लगाना ही पड़े तो मैं 'ना' को ही प्राथमिकता दूंगा।
पैसे बचने की जो थोड़ी बहुत ख़ुशी अगर मेरे घरवालों को हुई भी होगी तो मैं उसे उनका अज्ञान समझूंगा। क्यूंकि आज इतने साल बीतने के बाद उन्हें इस बात का ज्ञान भली भांति हो चुका है कि वो बचत तूफ़ान से पहले वाली शांति जैसी थी।
10 टिप्पणियां:
डॉक्टर का चिट्ठा खुलवाओ. अच्छी टिप्पणी करना जानते हैं:
उनके अनुसार मैं बहुत शुभ, सुंदर और (शायद) गुणवान था।
--हा हा, मजाक कर रहा हूँ. :)
बढ़िया रही आपकी जन्म कथा.
अच्छा लगा इसे पढ़ना। लिखते रहें।
अच्छा लिखा है लिखते रहो।
विकाश भाई अच्छे शब्द शिल्पी है आप लिखते रहे ..
भई वाह । क्या बात है । आपकी शैली में प्रवाह और रोचक 'कहन' है । बहुत खूब ।
'की' तथा 'कि' में अन्तर कर लेंगे तो आनन्द सौ गुना बढ् जाएगा ।
हार्दिक शुभ कामनाएं
आप सबों का बहुत बहुत धन्यवाद।
और विष्णु जी....की और कि की गलतियों का दोष ब्राउजर के माथे जाता है। किसी किसी ब्राउजर मे उल्टा पुल्टा दिखता है तो लिखते वक़्त गलती हो जाती है। आगे से विशेष ध्यान रखूंगा।
नमस्ते, आप का कथन बडा ही मजेदार है । बहुत ाछ्छा लगा पढकर।
Ek saral si baat ko sahajta se kehkar, us baat ko vishesh banane ki yogyata aapme poori tarah dikhai deti hai!
very interestin & very nice!
likhte raho!
ये अलग बात है कि वो सारे मन्नत आजतक पुरे नही हुए कभी वक्त की कमी तो कभी पैसों की।
मेरे अनुसार "ये अलग बात है कि वो सारी मन्नतें आजतक पुरी नही हुईं, कभी वक्त की कमी तो कभी पैसों की" होना चाहिए
:) बडाई फिर कभी.
गौरी जी एवं नयी सुबह जी! प्रशंसा के लिए आभार।
आशीष जी! आपकी टिपण्णी इस बात का गवाह है कि आपने सचमुच यह पोस्ट पढी है। ;) धन्यवाद स्वीकारें। मैं कोशिश करूंगा कि आगे इस तरह की गलतियां ना हो।
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